MAHA SHIVRATRI: पूजा किसी भी प्रकार की हो सभी का सार यही है- शुद्ध रहना और दूसरों का भला करना। जो दीन, निर्बल और रोगी में शिवजी को देखता है, वह सत्यता में शिव की पूजा करता है और यदि वह शिव को केवल छवि में देखता है, तो उसकी पूजा प्रारंभिक है। जिसने एक निर्धन मनुष्य में शिव को देखकर, उसकी जाति, पंथ, नस्ल, या कुछ भी सोचे बिना उसकी सेवा और सहायता की है, शिव उस व्यक्ति की तुलना में अधिक प्रसन्न हैं, जो उन्हें केवल मंदिरों में देखता है।
कौन शिव को अधिक प्रिय
एक धनी मनुष्य के पास एक उद्यान और दो माली थे। इनमें से एक माली बड़ा आलसी था और काम नहीं करता था, परन्तु जब स्वामी उद्यान में आते तो आलसी उठकर हाथ जोड़कर कहता- मेरे स्वामी का मुख कितना सुन्दर है और उसके सामने नाचने लगता। दूसरा माली अधिक बात नहीं करता था, किंतु परिश्रम करता था। वह हर प्रकार के फल और शाक (सब्जी) उत्पन्न करता था। जिसे वह अपने स्वामी के पास ले जाता था। इन दोनों मालियों में से कौन अपने स्वामी को अधिक प्रिय होगा? शिव संसार के स्वामी हैं और यह संसार उनका उद्यान है। संसार में दो प्रकार के माली हैं। पहला वह जो आलसी है, पाखंडी है, केवल व्यर्थ की बातें करता है और दूसरा वह जो शिव की संतान प्राणीमात्र की सेवा, देखभाल कर रहा है। इनमें से कौन शिव को अधिक प्रिय होगा?
निःस्वार्थता ही धर्म की कसौटी
- जो भी आपके पास सहायता के लिए आता है, उसकी उतनी ही सहायता करें, जितनी आपकी शक्ति है।
- इस सहायता शक्ति से हृदय शुद्ध (चित्त-शुद्धि) हो जाता है और
- फिर सबके भीतर निवास करने वाले शिव प्रकट हो जाते हैं।
- स्वार्थ सबसे बड़ा पाप है, पहले अपने बारे में सोचना।
- जो सोचता है, “मैं पहले भोजन करुंगा, मेरे पास दूसरों से अधिक धन होगा, और मेरे पास सब कुछ होगा।
- जो सोचता है, “मैं दूसरों से पहले स्वर्ग प्राप्त करूंगा, मुझे दूसरों से पहले मुक्ति मिलेगी” वह स्वार्थी है।
- निःस्वार्थ व्यक्ति कहता है, “मैं अंतिम रहूंगा, मुझे स्वर्ग जाने की इच्छा नहीं है, मैं नरक भी जाऊंगा
- यदि ऐसा करके मैं अपने भाइयों की सहायता कर सकता हूं। यह निःस्वार्थता ही धर्म की कसौटी है।
- जिसके पास यह निस्वार्थता अधिक है, वह अधिक आध्यात्मिक और शिव के निकट है।
- चाहे वह विद्वान हो या अज्ञानी, वह किसी अन्य की तुलना में शिवजी के अधिक निकट है।